वैश्या
वैश्या
मैं बिकती हूँ बाज़ारों में, तन ढंकने को तन देती हूँ
मैं बिकती हूँ बाज़ारों में, अन्न पाने को तन देती हूँ
तन देना है मर्जी मेरी, मैं अपने दम पर जीती हूँ
जिल्लत की पानी मंजूर नहीं, मेहनत का विष मैं पिती हूँ
हाथ पसारा जब मैंने, हवस की नज़रों ने भेद दिया
अपनों के हीं घेरे में, तन मन मेरा छेद दिया
प्यार जताया जिसने भी, बस मेरे तन का भूखा था
इतनों ने प्यास बुझाई की, तन-मन मेरा सूखा था
अंजान हाथों में सौप दिया, अपनो ने मुझको बेच दिया
कुछ पैसों की लालच में, गला बचपन का रेंत दिया
जब भी मैं चिल्लाती थी, मेरी आवाज़ सुनी ना जाती थी
इस नर्क की अब मैं बंदी हूँ, ये सोच-सोच घबराती थी
मैं उस गलियारे रहती हूँ, जिसे कहते लोग सकुचाते है
पर देख कर मेरी खिड़की को, मन हीं मन ललचाते हैं
जो मुझपर दाग लगाते हैं, हर शाम मेरे घर आते हैं
मेरे यौवन के सागर में बेसुध हो गोते खाते है
मेरे मन का कोई मोल नहीं, बस तन की बोली लगती है
नहीं मांग मेरी लाल तो क्या, पर सेज रोज़ हीं सजती है
चौखट मेरा एक मंदिर है, जो मांगे मन की पाते है
जो अपने घर में खुश ना हो, वो ज्यादा भेंट चढ़ाते है
मैं मंदिर भी गिरजा घर भी, मैं मस्जिद भी गुरुद्वारा भी
हर धर्म मेरे घर नंगा है, बेकार भी है बेचारा भी
मेरे द्वार पर कोई भेद नहीं, ओहदे औकात का खेद नहीं
जो कीमत मेरी चुकाता है , उस संग सोने में हर्ज़ नहीं
क्या नेता क्या अभिनेता, क्या राजा क्या रंक
क्या पंडित क्या मौलवी, मुझे पाने को सब तंग
सबके उपर मेरी माया, कोई ना मुझसे बचने पाया
साधू, चोर, सिपाही, दुर्जन, मेरे द्वार सभी है सज्जन
जो टूटे बिखरे आते हैं, मैं उनका मरहम बन जाती हूँ
जिसकी ना कोई सुनता हो, हर दर्द उसका मैं भुलाती हूँ
जो मुझको ताने देते हैं, मैं उसके सिर चढ़ जाती हूँ
उनके मन के अंदर फिर मैं अपनी तन की प्यास जगाती हूँ
जो जितना खुद से दूर रहे, मुझे पाने को मजबूर रहे
बस मुझसे अंग लगाने को, अपने संगी से क्रूर रहे
मेरे पास ना कोई मर्यादा, रसदार हूँ मैंह्द से ज्यादा
जो जितना धन बरसायेगा, वो उतना मुझको पायेगा
अपनी बीती बतियाते है, सब दिल का हाल सुनाते है
लेकिन मेरे जीवन की पीडा, देख समझ नहीं पाते है
ये मेरा कोई चुनाव नही है, मेरे जीवन मे छांव नही है
जिसके कारण मैं बंधी यहाँ पर, वो पती है मेरा यार नहीं है।
