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Vikas Sharma Daksh

Abstract

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Vikas Sharma Daksh

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वाल्देन की छाँव

वाल्देन की छाँव

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यूँ तो ताउम्र गुज़र हुई अपनी फकीरों की तरह,

दुनिया हमें सलाम करती रही ज़हीरों की तरह, 


है इत्तिला कि हकूमत से रखते हैं खिलाफत,

फिर भी हजूर पेश आते हैं वजीरों की तरह,


इक रेल के डिब्बे सी है जिंदगी मेरे साहिब,

मिलते, छूटते लोग यहाँ मुसाफिरों की तरह, 


सोच समझ के खर्च करो ये सरमाया लम्हों का,

यादों में सिमट जाएगा पुरानी तस्वीरों की तरह,


जहाँ में बिका नहीं है कभी ईमान उस बशर का,

बजुर्गों के उसूल जो रखे पुश्तैनी जागीरों की तरह,


ना दिल है, ना ज़मीर, ना रूह ही बची है इसमें, 

खोखले जिस्म हैं दीमक लगे शहतीरों की तरह,


‘दक्ष’ लाजिम है मुफलिसी में बसर हो बाद उनके,

वाल्देन की छाँव में ही गुज़रती है अमीरों की तरह, 




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