उत्तर निज पद-चिन्हों से
उत्तर निज पद-चिन्हों से
गढ- चल प्रस्तर शूलों में।
उत्तर निज पद-चिन्हों से।
कितना ही हो, घना कुहासा
दिखे न उसमें किरण की आशा
प्रबल हो इतना लक्ष्य तुम्हारा
कि तिमिर ढले तेरे होने से।
मिथ्या भाल कभी न साजा
बिगुल विजय का रण में बाजा
निज धरो चरण, सत्कर्मों के
कि पुष्प खिले, उस माटी से।
हो नूतन, हर प्राचीन सवेरा
ढल जाए जीवन से अंधेरा
प्रतिक्षण तत्पर रहना इतना
कि संदेह सदा, हारे बल से।।
गढ़- चल प्रस्तर शूलों में
उत्तर निज पद-चिन्हों से।
उत्तर निज पद-चिन्हों से।।
