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डॉ वन्दना राजरवि

Romance

4.0  

डॉ वन्दना राजरवि

Romance

उस रोज

उस रोज

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ठंड में दुबका हुआ मन

फैल जाना चाहता था हरी घास पर

एक रंग उसका

मेरी नज़रों की स्पेक्ट्रम से

जब जा उलझा था।


बाँध से गुजर कर जो

गुजरती थी नदी शांत होकर

जैसे टिका दिए थे किसी ने

बारूद के टीले उसके सीने पर।


सारे अनुबंध तोड़ कर

उसे परिंदा हो जाने की ख़्वाहिश थी

और किसी मज़ार पर

मन्नत के धागे सा उसे बंध जाना था।


अलिंद निलय कुछ पल

को तो ठहरे ही थे

समय भी कुछ देशांतर

जा खिसका था।


उस रोज इंद्रधनुष ने ज़रा भी

इंतजार ना किया बरसात का

मेरी आँखों से रंग चुरा कर

उसके होठों पर जा सिमटा था।


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