मेरी ख्वाहिशें
मेरी ख्वाहिशें
उंगलियों के,
कोने में फँसाकर,
सलीके से तुरपती,
समेटती बटोरती।
पर यह कोई साड़ी,
की प्लीट्ज तो नहीं,
जो एक सेफ्टीपिन से,
बंध जाएँ एक साथ।
जिन्हें लटका कर,
हैंगर में,
बंद कर दें,
अलमारी में।
ये बच्चों-सा दौड़ती हैं,
नीले आसमान में,
और झटक कर मेरा हाथ,
छिटक जाती हैं।
क्षितिज के उस पार तक,
हर शाम लाल होती है,
डूबकर समंदर में,
सो जाती हैं।
और सुबह उग,
आती है फिर से,
नारंगी से बड़े,
गोले के संग।
