उनका ख़्याल
उनका ख़्याल


पर्वतों नदियों झरनों को
पेड़ों परिंदों और पनघट पर
इन नन्ही मुंडेरों को
तकते -तकते ऑंखें
ताकने लगी किसी को
उन पगडंडियों पर
सरपट दौड़ते वो पैर।
पानी में कीचड में
औतप्रोत वो पैर
अपने आलिंगन में जाने
राह की कितनी धूल
मिट्टी कंकर को
समेटते हुए वो पैर
अचानक उस पानी की क्यारी में
खुद को समर्पित रखते वो पैर,
मानो दुग्ध की तरह श्वेत वो पैर
और पैरो से ऊपर को
तकता मेरा मन
लेकिन मुख पर उलझी लटों ने
डेरा यूँ डाला था
जैसे कोई जुगनू अब
रात में चमकने वाला था।
कलम उठाकर मैंने
उसके ख़्याल को याद किया
यही ख़्याल तो उसके थे
अब जिनपर अख़्तियार है मेरा हुआ
काश ! थोड़ा सब्र और संयम
दिल भी दिखा देता
यही ख़्याल ख़्याल न होकर
रूबरू कुछ कह देता।