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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा

Abstract Inspirational

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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा

Abstract Inspirational

उमड़ घुमड़ पड़े शब्दों का बादल

उमड़ घुमड़ पड़े शब्दों का बादल

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शुरु से जनता को प्रलोभन देकर गुमराह किया है,

घुमा फिरा के जनता ने भी उन्हें हरबार चुन लिया है

तुम कौन से डर में हो और कौन सा डर पैदा करते हो,

हमारी शागिर्द में हमारे ही रसूलों में खंजर पैदा करते हो


यह जमीं अब न बंटेगी धर्म के आधार पर,

ना बंटेगी तुम्हारे किसी जिहाद ए आतंक पर

क्योंकि यह जमीं नहीं हमने खेला मां की गोद है,

अब सर ही कटेगें मंजूर कुछ नहीं समझौते पर है,


जिन्हें यह जमीं उदर लगती है पालने से घेरने को,

वह इकतरफा चलें जायें जाहन्नुम ए लहद घेरने को

मुझे उस घड़ी उस पल का इंतजार है,

जिसदिन तुझे मेरी बातों पर ऐतवार है


कहने लगते हैं फिर सब लोग मुझे पागल, 

घुमड़-उमड़ पड़े जब शब्दों का बादल

जो समझ नहीं पाते बात,वह चुप या करते हैं बकवास,

समझ वहीं पाते हैं खास, जिन्हें मालूम होती है बात


मुगलता के बाद भी गुलामी से सब सुकृ़तारे, 

ऐसी जननी है जमीं जिसमें कछु वीर पैदा हुये हमारे।


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