उलझन
उलझन
कैसी यह उलझन है !
कभी साथ हुआ करती थी फिर भी बात न कर सका।
आज तु साथ नहीं फिर भी बाते करते करते
कब सुबह हो जाती है समझ नहीं पाता !
कभी कभी खुद को तनहा महसूस करता हूँ तो
घूम आता हूँ किसी नुक्कड़ या भिड़ भरी गलियों सें,
न जाने क्यूँ जब कभी किशोरजी को सुनता हूँ
तो खुली आखोंसे भी तुम्हारी यादें अकसर दिखाई देती है !
वो तुम्हारा मुस्कुराना, बात करते करते मेरी आखों में झाँकना,
हलकी सी अपनी जुल्फों को हाथों से
कानों के ऊपर से पिछे डाल देना और मेरी तरफ देखकर शर्माना,
तुम्हे कभी रास न आया मेरा युं किसी बात से मुरझाना,
फिर भी जाने क्यूँ तुने मेरा साथ छोड़ा,
बेखबर मैं की क्यू तुने ये दिल तोडा,
खैर कोई बात नहीं...
आजकल बिना दिल के जीए जा रहा हूँ,
आँसू को वारुणी समझकर पिए जा रहा हूँ,
ख्वाहिश यही है कि तू ऐसी ही मुस्कुराती रहे,
जिंदगी तुम पर ख़ुशियाँ ऐसे ही बरसाती रहे !

