हरा नहीं सकता !
हरा नहीं सकता !
हे पर्वत,
तू मुझे गीरा तो सकता हैं
मगर हरा नहीं सकता,
तराश ले मेरा बुलंद हौसला
जिसे कभी तू छिन नहीं सकता...
हर अंधेरा चिरकर सवेरा निकलता हैं
कोशिश करें तो पत्थर पिघलता हैं,
मत कर इतना गुरुर अपनी उंचाईपर
कई गगनचुंबी गिरी यहाँ ढेर होकर,
मुझे मिट्टी का ढेर तो बना सकता हैं
मगर मेरा इरादा तोड नहीं सकता...
तू मुझे गीरा तो सकता हैं
मगर हरा नहीं सकता....
माना की औरों से थोड़ा धीरे चलता हूं
रास्तो पर चलते कई बार फिसलता हूं,
मुश्किले चुभती हैं फिर भी मुस्कुराता हूं
अग्नी में तपकर थोडा और निखरता हूं
नीचा दिखाकर मुझे डरा तो सकता हैं
मगर मेरे हिमालय से विश्वास को
कभी झुका नहीं सकता..
तू मुझे गीरा तो सकता हैं
मगर हरा नहीं सकता....
चलो फिर आज फैसला कर ही देते हैं
मेरे विश्वास से तेरी उंचाई नाप लेते हैं,
तुने दिये जख्म से मेरी ताकत बढि हैं
मैं नहीं यह तो बस मेरी उम्मीद लढी हैं
सोच अगर मैदान में मैं हाजिर होता
अपने ही किये पर तू उम्र भर रोता...
