उलझन
उलझन
सरोवर किनारे, ढलती गुलाबी शाम
सांय-सांय बहती हुई मतवाली पौन
धुंधले आकाश के तले बैठा हुआ
वो हाथ में कंकड़ लेकर पानी में फैंकता
फिर उठती तरंगों की ध्वनि को
सुनकर मंद-मंद मुस्कुरा देता
कभी-कभी आकाश पर भी नज़र डालता
जाने क्यों मन में इक उत्सुकता जागी
करीब जाकर देखा
वो एक युवा बालक था जो शायद
यौवन की दहलीज़ पर खड़े होकर
अपने अनदेखे सपनों के धागे बुन रहा था
अहसास हुआ जैसे किसी उधेड़बुन में खोया हो
कंधे पर हाथ रखकर, इक सवाल किया
दोस्त क्या सोच रहे हो?
पहले तो सकुचाया, फिर धीरे से बोला
कुछ नहीं, मन थोड़ा-सा उदास था
बस उसको ही बहलाने आया हूँ
बस इक उलझन हैं मन में
जितना सुलझाता हूँ, उतनी ही उलझ जाती है
अनगिनत रास्ते खड़ हैं
बाहें फैलाये ज़िन्दगी के सामने
हर राह मुझे बुलाती है
मगर किस राह जाऊँ, बस यही उलझन है
क्षितिज की ओर करके इशारा, कहा उससे
जो राह कठिन हो मगर चुनौतियों से भरीं हो
उसी राह में अपने आने वाले सपने देखो
वो ख़ामोश चेहरा मुस्कुराकर चल दिया
शायद जिसकी तालाश थी, उसे मिल गया।