उजाले अब होते नहीं
उजाले अब होते नहीं
रोशिनी न जाने कहां खो गई,
अब प्रभात भी शायद होती नहीं ।
उजालों के दिन दिखते नहीं,
क्यों नैनों की भाषा कुछ कहती नहीं।
मन में अंधेरों ने बसेरा किया,
लबों पर अनुभव कुछ हुआ नहीं ।
परदो के पीछे धुंधला नजारा ,
कह रहा अक्स छुपा है कहीं।
चलते रहे कुछ ढूंढते रहे ,
पत्थरों से भी खून रिस्ते रहे ।
रिश्तो में अब जान न रही,
बोझिल हो हम ढोते रहे ।
बेजुबान भी हो रहना पड़े,
सितम यदि औरों का सहना पड़े।
कर्कश हो क्या सुर सरिता बहे,
मधुरम अब कोई जहां नहीं।
उजालों की पनाह हम खोजे कहीं,
दुराभावों को सदा हटा कर चले।
पथ के कंकर भी लगे फूल से,
जब अपनों के दिल में जगह हो कहीं।