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Pooja Yadav

Abstract

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Pooja Yadav

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उद्विग्न मन

उद्विग्न मन

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आज मैं फिर से

अपने ही शव पर रोया।

आज मैंने अपने ही श्वेद कणों में,

अपनी अस्थि को धोया।


आज मैं फिर अपने ही प्राण के,

सिमटे कंपन से सिहर उठा।

आज फिर से मेरे तन ने

मेरी सांसों का बोझा ढोया।


आज फिर से देख रहा हूँ

अपना शोषण और लाचारी।

आज फिर है आंखों में मेरी

बेबसी और चिंगारी।


आज फिर नीची नजरों से

देख रहा हूँ पानी में अंबर,

आज फिर मेरे सम्मान पर

प्रश्नों की हुई बंबारी।


इंद्रसभा में खड़ा हुआ हूँ,

तन पर एक चिथडा ही सही।

मेरे अधिकारों का ज्ञान मुझे है

पा सकता हूँ, प्रयत्न करुंगा नहीं।


मैं शोषित हूँ आज भले

पर मेरे कारण ही तुम हो,

मुझसे निर्मित है परिचय तुम्हारा

तुमसे मेरी पहचान नहीं।


आज भी मैं अपनी बेबसी से

अपने शोषण को पाल रहा हूँ।

आज भी विद्रोह की चिंगारी को

अपने मन से निकाल रहा हूँ।


जानता हूँ, गलत है ये सब सहना

होंठ चुप है, मन उद्विग्न भी है,

पर ये भी सच है कि

इसी शोषण के बल पर,

मैं अपने अस्तित्व को संभाल रहा हूँ।


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