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उड़ती सावनी घटा

उड़ती सावनी घटा

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ओ सावन की उड़ती घटा 

मेरा आंचल यूँ ना हटा,

यौवन मेरा झाँक रहा 

बचपन विदा माँग रहा ।


मेघों के ये सरस कटोरे

टपक रहे हैं बादल सारे, 

परिलक्षित सी बूँदे सारी

झर रहीं हैं बारी -बारी ।


रिमझिम गाती राग मल्हार

बरसती मोतियों की धार ,

पर्णों पर जमते धवल हार

मानो छू गया हो चित्रकार।


थम कर नृत्य करती तड़ित

नभ गुंजित गर्जन से मंडित ,

बंजारे से बादल हुए भ्रमित

चातक, कोक, होते हर्षित ।


सावन आने पर बंधते झूले

पीपल की खुशबू मन छूले ,

पवन झकोरा कुछ बोले

कानों में सुमधुर रस घोले ।


मोर पंख बिछे जैसे कालीन

कोकिला कूक में है तल्लीन ,

दुर्वा के कण हैं रेशम महीन

आम्र वृक्ष पर वेणियाँ रंगीन ।


धरा करती सावन में श्रृंगार

नव यौवना सी होकर तैयार,

मधुमास का करती है इंतजार

डोली में विदाई को है बेकरार।


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