इंन्द्र धनुष
इंन्द्र धनुष


उठा कर धरा से कण -कण
जालासिक्त नभ के पटल पर
तूलिका भिगो उस चित्रकार ने
भर दिए चटख सप्त रंग अंबर पर।
उदित होते प्राची में दिवाकर की
प्रतिच्छाया से छीन रश्मि कण ,
वसुधा के अर्ध वृत्त को रंगों से
जब आकृत करने लगे परावर्तन।
बनने लगा रंगों का इन्द्रधनुष
आच्छादित मंडप अवनि पर ,
नव पल्लवों पर जमें हिम कण
तोरण बनी लता चढ़ी पेड़ों पर ।
सप्त रंगों को अंबर से चुराने,
समूह में उड़ रहीं तितलियाँ ,
धरती ने रोका ! न जाओ तुम
यही ठोर है, करो अठखेलियाँ।
देखो भी तुम झील के दर्पण में
चित्रकार ने जो पंखों पर उकेरी,
मोहित है छूने तुम्हें गुंजन करते
पंक्तियों के वृंद से भ्रमर -भ्रामरी।
चाहत और पाने की हो कभी
नजर भर कर देख लो गगन में ,
नृत्य तड़ित का क्षणिक होता
इन्द्रधनुष भी विलुप्त होगा क्षण में।