तू इमारत सी माँ
तू इमारत सी माँ


तू इमारत सी माँ
तेरी सीढ़ी चढ़ते चढ़ते
मैं बड़ी हो जाऊँगी
तेरे अचेतन चेहरे के पीछे
छुपे ममता के गीतों को
तब मैं सुन पाऊँगी।
राहें थी तेरी कितनी दुर्गम
मेरी सीमित ज्ञान दृष्टी
ना तुझे जान पाती है
पर तू बन लोहे की छाया
हर मुश्किलों से मुझे बचा जाती है।
दर्द छुपाना खूब जानती
तुझे महसूस करते करते
तेरी मुस्कान मैं भी अपनाऊंगी
देखा था तालाब चुपके से तेरे आंसुओं का
मैं उसमेँ अब कहानी अपनी भी पा जाऊँगी।
तू इमारत सी माँ
तेरी सीढ़ी चढ़ते चढ़ते
मैं बड़ी हो जाऊँगी।