वह सरसराती निकल गयी
वह सरसराती निकल गयी
वह सरसराती निकली
राह सूनी थरथरा गयी
झुरमुट पेड़ों के झांकने लगे
चेहरे पर सलवटें सन्नाटों के छाने लगी।
दु:साहसी प्रकाश
जटिल अंधेरों को खोलता रहा
प्रकाश के पीछे चलते-चलते
पहिया,राह सुगम टोहता रहा।
रक्त-विहीन,शून्य माथे पर सजाए
राह टेढ़ी सी सो रही थी
स्पर्श करती वह सरसराती निकली
राह गहराई से ऊँसती रह गयी।
प्रकाश में झुरमुट झांकते देख रहे
कोई तो आया इस राह के
सूने दरवाजे को खटखटाने
चीरता कोई आ रहा
हवाओं की भयंकर ध्वनी से टकराने।
आस-पास के जंगल भी
अनपेक्षित राही की
गड़गड़ाहट से मानो चेत गए
आसमाँ के तारे भी दम साधे
अवचेतन से ठहर गए।
वह सरसराती निकल गयी
पीछे थोड़ा-थोड़ा कुछ रह गया
लगता है उसमें बैठी संगी का दिल
एक कविता सी कह गया ।