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संजय असवाल

Abstract

4.7  

संजय असवाल

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तुम्हें सुनाई नही देती ...!

तुम्हें सुनाई नही देती ...!

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कितना सरल जीवन हैं उनका

ऐसा लगता है तुम्हें...

पर तुम नहीं जान पाओगे 

कभी उनके श्रम को 

उनके संघर्षों को

उनके हाथों में पड़े छालों को,

एसी में बैठे या 

टैरेस में टहलते

हाथों में अखबार लिए या 

चाय की चुस्कियां लेते हुए,

तुम्हें तो बस लगता है 

उन्हें कोई कष्ट नहीं 

न कोई दर्द 

ना कोई चिंता

ये मगन हैं खुद में

या दिखते हैं मौज में,

पर तपती धूप में

माथे से टपकता पसीना और 

चिपचिपा शरीर लिए

हाथों में लोहे का भारी घन 

और उसकी चोट 

तुम्हें सुनाई नहीं देती,

आग के भोंकनी में 

फूंकते उनके कलेजे का स्वर 

तुम्हें सुनाई नहीं देता,

पास में बच्चों की बिलबिलाट 

उनके खाली पेट की घड़घाड़ाट 

तुम्हें सुनाई नहीं देती,

खांसते धड़कते 

दिल की विसात

आंखों में सूनापन

एक अजीब सा भय

तुम्हें दिखाई नहीं देती,

तुम्हें तो बस दिखता है

उनका नक्करापन

अल्हड़ बेबाक आचरण

उनका सड़क किनारे घेरे 

गंदा सा तंबू

बिखरे लोहे के छोटे छोटे टुकड़े

पर जिंदगी की जद्दोजहद

और पेट की आग 

तुम्हें दिखाई नहीं देती।


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