तुम कहां मिलोगी अब..!
तुम कहां मिलोगी अब..!
तुम कहां मिलोगी अब
कल तक जहां
तुम्हारी पहचान थी,
तुम्हारी परछाई की
चहल कदमी थी,
तुम खोई रहती
खुद में हरदम...!
उन बंद कमरों में
इधर उधर भागती
सांस लेने की फुर्सत भी कहां थी तुम्हें।
खुद की क्यों फिक्र करती
दूसरों में जब
प्राण बसते थे तुम्हारे,
कभी क्यारियों में
फूलों संग तुम्हारा
अदभुत गठजोड़,
कभी बाथरूम में
कपड़ों का ढेर..!
तुम सच में
कभी थकती भी नहीं थी,
आखिर किस हाड़ मांस की
बनी थी तुम।
रसोई में प्रेशर की सिटी
तुम्हें बुलाती,
चकले पर चलते
तुम्हारे हाथ और
रोटियों का आकार
एक सा रहता
शायद तुम्हारा कहा मान कर ही
वो घुप से फूल जाती।
कभी अकेले कमरे में
वो गुनगुनाहट,
कैसे रमी रहती थी तुम खुद में ...!
सुरीले गीतों के संग
तुम्हारे थिरकते पांव और
मटकती आंखें
बिन बोले बहुत कुछ बयां कर जाती।
अलमारी में रखे ढेर सारे
तुम्हारे तह किए कपड़े
जस के तस बड़ी
सलाइहत थी तुममे,
कुछ पुराने पत्र
तुम्हारे हाथों
लिखे देखें मैंने
क्या मोतियों से शब्द उकेरे थे
तुम्हारी उंगलियों ने।
सच मन
मसोज कर रह जाता है अब...!
तुम हर जगह मौजूद थी
तुम्हारी खिलखिलाहट
बड़ी ठंडक देती
जब मैं खुद उलझा
परेशान सा तुम्हारे सामने आ खड़ा होता।
तुम्हारा प्यार से
पास में बैठना और
मुस्करा देना
जैसे सुलझ जाती
दुनियां भर की मुसीबतें एक साथ..!
अब हर ओर खाली पन सा
अजीब सा सन्नाटा पसरा है
न सांसों की उथल पुथल
न हवाओं में
पहली सी ठंडक
सब कुछ रुका हुआ सा
तुम कहां मिलोगी अब ..!
