तुम होगे न ?
तुम होगे न ?
सत्य यही ,वह गौतम हूँ जो
अभी अभी प्रासाद से निकला हो
एक भय है अंदर तक गहराता
जो जीवन के कटु-तिक्त अनुभवों हों
तो जीवन से बुद्ध सी फिर मैं
निवृत्त हो जाउंगी क्या ,कहो?
तुम प्रिय परम सौभाग्यशाली जो
न कभी गौतम न बुद्ध हुए हो
जीवन के सागर में अविचलित नाविक से
हर उठती बाधा से तुम जूझे हो
आम हो कर भी विशिष्ट से
अविजित ही बने हुए हो।
सुन लोगे क्या तुम बोलो,
यह अंतर की घुटती लघु गाथा को
जहां अब भाव ,भान सब होते मंथर,
जहां आत्मबल कांपे थर थर,
क्या हारूँगी मैं,यह सब कुछ खो,
ये विचित्र अनुभव जीते जो।
क्या तुम दिखते होगे संभाले मुझको,
किसी पल मैं हो जाऊं किंचित विक्षिप्त जो?
