तुम ही तुम
तुम ही तुम


मेरी चाहत उस मुकाम पर है
ईश के अर्श की चौखट सी पाक
कौन सी कमी ने तुम्हें छला
तुम दामन छुड़ाकर चल दिए
मेरे सपनो का धुआँ
तुम्हारे वजूद के आसपास ही छंटता है
हसरतों की बाँहें आह्वान देती है
अमराइयोंमें उठती बयार से पूछो
मेरे उर से
हर सौरभ तेरे नाम की उठती है
सुबह की पहली रश्मियाँ सूँघना
मेरी साँसों को छूकर चलती है
एक नग्मा दोहराते
ढूँढ लेना उस नग्में में मुझे
बिलकुल तुम्हारे नाम के करीब
जो एक धून बजती है
रात में गगन को तकते चूमना
तारक मणि मंड़ित चद्दर से
चुनना एक सितारा चाँद का पड़ोसी
शुक्र सा झिलमिलाता
मेरे माहताब की छवि ना दिखे तो कहना
मेरे तन के घट से ढ़लती हर शै में
अपने निशान पाओगे
संगिनी हूँ, महज़ कण सी नहीं
अधरों से उठती रागिनी सुनना
हर दास्ताँ में तुम ही तुम बसते हो।