तु कुछ अजनबी सी...
तु कुछ अजनबी सी...
तू कुछ अजनबी सी, हां अजनबी सी,
थामकर हाथ तन्हाइयो का चल रही थी,
मुस्कुराहट पर तुम्हारी मरते थे हम...उसे क्यों छोड़ आए हो तुम,
तेरा बात बात पर रूठ जाना,आकर मुझे गले लगाना कहा भूल आए हो तुम,
तुम्हारे अश्क भी अब रो रो कर फरियाद कर रहे हैं,
कि अपना पुराना यार कहां खो आए हो तुम,
बनी थी दुल्हन तुम किसी और की,
लेकिन एक दफा....
सुकून से मुझे गले क्यों लगाया था,
देखकर मुस्कान ने मेरा हाथ थामा था,
लेकिन खामोशी को चादर क्यों ओढ आए हो तुम,
तू कुछ अजनबी सी... हां कुछ अजनबी सी,
अनजान राहों पर गुनगुना रही थी,
हां कुछ अजनबी सी,तू कुछ अजनबी सी,
थामकर हाथ तन्हाइयों का चल रही थी,
तू अगर कहे......,
तू ख्वाब मुकम्मल....,तो मुझे तेरी रातों की नींद बनना है,
मुस्कुराए तू देख के जिस और मुझे वो आइना बनना है,
बिछा दूं कदमों में तेरे खुशियां जिससे तन्हाई का कोई नाता नहीं है,
तू मुस्कुराए तो जन्नत भी तुझ सी है,
तू अगर कहे....,
तू ख्वाब मुकम्मल,तो मुझे खुदा बनना है,
जाकर तकदीर में तेरे...,
तेरी हाथो की लकीरों में खुद को लिखना है,
तू अजनबी सी,अजनबी सी...
हां लेकिन मुझ में तू ढल चुकी हैं.... हां ढल चुकी हैं।

