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Nilofar Farooqui Tauseef

Abstract

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Nilofar Farooqui Tauseef

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टुकड़ा काँच का

टुकड़ा काँच का

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क्या तुमने काँच, कभी देखा है ?

हाँ, गर देखा है तो क्या देखा है।

शीशे की निखार बन, भाता है।

टूटते ही, दिल को चुभ जाता है।

शीशे से नज़र नहीं हटती है।

टूटते ही शगुन-अपशगुन के बीच फँसती है।

मेरे टूटने को शगुन बताते हैं।

मेरे दर्द को समझ नहीं पाते हैं।

काँच के टूटने का एहसास किसे होता है।

समझता वही, जिसका दर्द से गुज़र होता है।

*देखो न,*

टूटने के बाद मैं कभी, जुड़ नहीं पाऊँगी।

इन्हीं टुकड़ों में अंत तक, रह जाऊँगी।

फिर टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाना है।

इतना ही तो मेरा फसाना है।

लहू मेरे भी बहते हैं, दर्द भी सहते हैं।

अश्क भर कर दामन में, जीते और मरते हैं

लेकिन इस दर्द को कौन समझता है।

ये अलग बात है, के बात हर कोई करता है।

ये अलग बात है, के बात हर कोई करता है।



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