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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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ठहराव सा है

ठहराव सा है

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एक ठहराव सा है

न रुकने वाला समय भी

ठहर सा गया है

हाला की एक पल जा रहा है

और एक पल आ रहा है


और इस आते जाते हुये पल में

जीवन आ भी रहा है

जीवन जा भी रहा है

नकारात्मकता संतृप्त हो चली है

और छलक रही है


महामारी का आलम है

और दिलचस्प है बात तो ये है कि

नकारात्मक होने की चाहत है जो

स्वस्थ्य रहने की सूचना है और

मनुष्य का नकात्मक होना

महामारी से मुक्ति का घोषणा भी है।


सब कुछ ठहरा हुआ भी

इसीलिए लग रहा है कि

नकारात्मकता का साम्राज्य

हिल रहा है

जीवन सकारात्मक विचारों के साथ

दूसरी दिशा में चल पड़ा है


जो है वो

नहीं होना चाहिए

इसलिए जो होना चाहिये वो

होना सम्भव हो पा रहा है

ध्यान से देखिए इस ठहरे हुये पल को

मनुष्य अपनी मनुष्यता से

आवेशित हो रहा है


महामारी की विभीषिका के बीच

नये रास्ते पर चल रहा है

जीवन के लिये जरूरी सामान

कम नहीं हैं

प्रक्रति का निजाम अस्तित्व में है


और मानव निर्मित ब्यवस्थाएँ

टूट कर अप्रसांगिक 

या गैरजरूरी होने के बावजूद

मनुष्य की जीवन रक्षा में

संकल्पित दिख रही हैं

ये बात और चारो तरफ

अफरातफरी का आलम है


शिकायतें हैं

विफलतायें हैं

और वो जो उम्मीद थी

वो बढ़ रही है और

जीवन के करीब आ रही है।


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