तन तृष्णा से परे मन तृष्णा का मिलन
तन तृष्णा से परे मन तृष्णा का मिलन
कान्हा दूर रहकर जब तुम हमारे सुंदरता की तारीफ करते
हो..
अपनी नटखट हँसी के साथ कहते हो, "आज तुम बहुत खूबसूरत दिख रही हो"
सच कहूं! असहज नहीं लगता हमें पर तुमसे नजरे ना मिला पाते हम।
अब तुम ही बताओ लज्जा की रक्तिमा कैसे तुमसे छुपाते हम!
मन में आता है तुम बड़े छलिया हो ,
और प्रेम तुम्हारी कमजोरी..
हर गोपियों पे लुटाई होगी ना तुमने
ऐसे ही तारीफ की फुलवारी।
फिर प्रीत में रंगा मेरा मन हंसकर
हमें समझाता है।
जिस का मन ही राधा मय हो
क्या उसके नजर में कोई और रह पता है ?
जहां प्रेम है वहां कान्हा
के नजर में बस राधा की छवि दिखती है !
जब प्रशंसा होती है गोपियों की
तो समझना कान्हा को राधा ही नजर आती है।
ईर्षा से परे हो गया है कान्हा
तुमसे प्रीत का ये बंधन !
राधा और शाम का तन तृष्णा से दूर
मन तृष्णा का ये मिलन !