तलाश स्वयं की
तलाश स्वयं की
वो अनगढ़ सी शिला,
हर बार किसी हथौड़े की चोट से
थोड़ा सा दरक जाती थी,
उस नुकीले खंजर से
बहता जाता था उसका
अनगढ़ होना,
जब तब कोई आकर
उसके स्व को आहत कर जाता,
सहती जाती हर प्रहार
निष्प्राण निरीह सी।
वेदना को बहने ना देती
समेटती रहती पीड़ा
भीतर....और भीतर,
और फिर किसी दिन अचानक
वो पाषाण शिला
बन जाती एक
नायाब प्रतिमा।
पीड़ा जब गहरे उतरती है,
तो कुछ अनुपम ही रचती है ।
