तिलिस्म
तिलिस्म
उसके हाथों को
मेहँदी से रँगा जाता रहा
बचपन से हर
तीज-त्योहार पर।
उसके समझ आने से
चीज़ें समझ से परे हो जाने तक
यह सिलसिला बना रहा।
बहुत बाद में वह जान पाई
कि यह तो एक साज़िश थी
ताकि वो कभी न अपनी लक़ीरें देखे
न उन्हें सच में बदलने की जुगत कर पाए।
अब वह भी बन चुकी है
इसी साजिश का हिस्सा
उसकी बेटी और बेटी की भी बेटी को
सुँघा चुकी है मेहँदी की खुशबू।
उसी ने बना दिया है
उन्हें भी अचेत
पर देर नहीं हुई कि कुछ न हो सके
उसे किसी तरह चुरा लेनी है,
मेहँदी की गंध और उसका रंग भी
तो बेटियाँ निकल सकती हैं
इस तिलिस्म से बाहर
सच अभी इतनी भी देर नहीं हुई।
