तेरी मंज़िल
तेरी मंज़िल
उठो और चलो तुम्हें मंज़िल ने पुकारा है।
यह धरती का गुलिस्तां सब तुम्हारा है।
जरूरत है कदम दो चार चलने की।
अपने हौसलों को थोड़ा सा ऊँचा करने की।
रास्ते मंज़िल के स्वतः बनते चले जाएंगे ।
ज़िंदगी के बाग में फूल खुद ही खिलते जाएंगे।
कब तक कोसते रहोगे तुम समय को।
कब त्यागोगे तुम इस आलस्य के मय को।
भर लो अपने तन में स्फूर्ति की नई उमंग को।
कर लो तरो ताज़ा मन और हर एक रग रग को।
सीख लो बादलों से निरंतर चलते रहना।
समुद्र से लेकर जल को धरती को पिलाते रहना।
चक्र जीवन का ऐसे ही चलता रहता है।
दुख सुख का चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
मत ठंडा होने दो तुम अपने लहू को।
मत मुरझाने दो अपने जीवन तरू को।
मंज़िल पाना है तो निरंतर चलना होगा।
जीवन में आए हैं तो कुछ तो करना होगा।
