तब बात कुछ और थी
तब बात कुछ और थी
लहरा कर आँचल ढलती सिंदूरी शाम
पंछियों का थक कर फिर ठिकानों को लौटना
पहाड़ों से नीचे उतरता अलसाया दिनकर
लहराती पीली सरसों का हवा से इश्क़ लड़ाना
अब कहाँ वह दिन, तब बात कुछ और थी
बादलों का गरजना, बिजलियों का चमकना
सावन के झूलों में सखियों का इठलाना
बरसात के पानी में काग़ज़ की नाव बहाना
अमुवा की डाल पर सुबह कोयल का गुनगुनाना
अब कहाँ वह दिन, तब बात कुछ और थी
घूँघट पट खोल बागों में कलियों का मुस्कुराना
फूलों का रस चुराकर भवरों का मचलना
मादक बसंत की खुमारी में बहारों का बहकना
बावरी तितलियों का फूलों से आँख मिचौनी
अब कहाँ वह दिन, तब बात कुछ और थी
कहाँ वह नटखट बचपन, कहाँ फीकी जवानी
वो बलखाती गलियाँ, यारों के नुक्कड़
खुले आसमां में उड़ने की जिद्द करती पतंग
नीम की छाँव तले दाना चुगती नन्हीं गौरैया
अब कहाँ वह दिन, तब बात कुछ और थी।