स्वीकार
स्वीकार
आज मैं क्या कहूँ ?
आज मैं क्या सुनूँ ?
सोचती हूँ आज के परिवेश में
सोचती हूँ आज के गलियारों में
सोचती हूँ आज के विचारो में
सोचती हूँ आज के लम्हो में !
क्या केवल सोचना काफी है ?
या पुरानी रीतियों से
सीखना काफी है ?
क्या बसंत के महीने का
गुलज़ार काफी है ?
क्या सावन की मिट्टी की
सुगंध काफी है ?
मौन का अर्थ अमृत
सी शीतलता है पर
क्या यह जज़्बात
बयाँ कर पाता है ?
पाना और खोना
हँसना और रोना
इनको समझना और
परखना काफी है ?
यही सोच विचार
दिमाग में कौंधते हैं
इनका उपचार करूँ या
व्यर्थ ही स्वीकार करूँ ?