स्वाभिमान
स्वाभिमान
वो नारी बेबस बेचारी
भूखा है परिवार
बिलखते बच्चे देख रोए मन
कैसा ज़ार जा़र
पंक्ति लगी है कुछ ही दूर पर
बँटता दीखे जहाँ अनाज
कैसे लाऊँ बिना दाम के
मन से उठती पर आवाज
सोच रही है खड़ी खड़ी वह
हे प्रभु कैसी दी बीमारी
पेट तो सबका भरना होगा
कब जाएगी ये महामारी
स्वाभिमान को ताक पे रखा
मास्क से मुख और नाक को ढका
सिर से माथे तक थी चुन्नी
थी पहचान छुपानी अपनी
पंक्ति में ही खड़ी थी अब वो
थर थर काँप रहे थे पाँव
बेरोजगारी ने खेला था
स्वाभिमान पर तीखा दाँव
हारने को ही था वो उसपल
मन से आई तभी आवाज
सब दिन नहीं होते समान हैं
अच्छे दिन का होगा आगाज़
जितना लेती आज किसी से
उससे अधिक किसी को दूँ
कल जब पलटेगी फिर किस्मत
मैं भी किसी का दुख हर लूँ
सुख दुख का ही नाम जिन्दगी
कभी सहायता लेनी पड़ती
कल जब समयचक्र बदलेगा
मैं भी सहायक बनूँ किसी की।