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Archana Saxena

Tragedy

4.5  

Archana Saxena

Tragedy

स्वाभिमान

स्वाभिमान

1 min
212


वो नारी बेबस बेचारी

भूखा है परिवार

बिलखते बच्चे देख रोए मन

कैसा ज़ार जा़र

पंक्ति लगी है कुछ ही दूर पर

बँटता दीखे जहाँ अनाज

कैसे लाऊँ बिना दाम के

मन से उठती पर आवाज

सोच रही है खड़ी खड़ी वह

हे प्रभु कैसी दी बीमारी

पेट तो सबका भरना होगा

कब जाएगी ये महामारी

स्वाभिमान को ताक पे रखा

मास्क से मुख और नाक को ढका

सिर से माथे तक थी चुन्नी

थी पहचान छुपानी अपनी

पंक्ति में ही खड़ी थी अब वो

थर थर काँप रहे थे पाँव

बेरोजगारी ने खेला था

स्वाभिमान पर तीखा दाँव

हारने को ही था वो उसपल

मन से आई तभी आवाज

सब दिन नहीं होते समान हैं

अच्छे दिन का होगा आगाज़

जितना लेती आज किसी से

उससे अधिक किसी को दूँ

कल जब पलटेगी फिर किस्मत

मैं भी किसी का दुख हर लूँ

सुख दुख का ही नाम जिन्दगी

कभी सहायता लेनी पड़ती

कल जब समयचक्र बदलेगा

मैं भी सहायक बनूँ किसी की।


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