सुर्ख़ी
सुर्ख़ी
लब सिलने का सिलसिला , कुछ यूँ चला
न मेरी आह निकली , न तेरी आह।
साँसो में न कोई फ़र्क़ रहा ,
जिस्मों ने ,मगर प्यार की गवाही दे दी।
सुर्ख़ी का लबों की तेरी, कुछ यूँ बँटवारा हुआ
न वो तेरी रही , न मेरी रही।
हक़ बराबर का , बराबर की ज़िम्मेदारी
खो कर वजूद अपना अपना
दोनो को मिल गयी , दुनिया सारी ।