सुबह रात को मिलने आई
सुबह रात को मिलने आई


कल रात सुबह मुझसे मिलने आई
शायद कुछ अनजान थी
ना समझ पा रही मेरी पहचान थी।
आखिर होती भी क्यों ना
हमने भी उसे कई दिनों से देखा ना था
कभी सुबह की किरणों में आंखें सेका ना था।
उसने आते ही मुझे रिझाई
देखते ही देखते सूरज की लालिमा दिखाई
हमें तो बस गर्मी नजर आई।
फिर उसने थोड़ी हवा चलाई
हमें तो ठंडी याद आई।
उसने ओस की बूंदे दिखाई
हमें बारिश की याद आई।
अब वह थोड़ा परेशान था
शायद उसके दिल में कुछ अरमान था
आखिर उसने एक प्रस्ताव मेरे सामने रखा।
"सुबह-सुबह जगना" यह मुझे ना जँचा
अब रहा ना कुछ दिखाने को
मुझे और कुछ नई बात सुनाने को।
थक हार व लौट चला अपने घर
हमें भी अब ना थी कोई फिक्र।
सुबह इतनी जल्दी जगूंगा पता ना था
कई दिनों से सुबह मुझे दिखा ना था।
आज सूरज की किरणें तेज ना थी
वायु में कोई वेग ना थी।
घासों पर बिछी मोती लग रही थी
आज यह जहां मुझे खुश होती लग रही थी।
सुबह की किरणें कुछ इस तरह भाग गई
मुझे सुबह जगने की आदत आ गई।