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Uma Bali

Abstract

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Uma Bali

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पुनरावृत्ति

पुनरावृत्ति

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आज मुलाक़ात हो गई

एक खंडहर से,

जो बिक चुका था।

बिन कहे कुछ बातें,

पहुँच रही थी

मुझ तक…….


कल की बारिश से

ईंटों के बीच झांकती

स्याह लकीरें,

कह रही थी,अपनी कहानी

अब तक …….


चौतरफ़ा उग आये

जंगली फूल,

जवानी का जश्न 

मना रहे थे…….


और अपने अस्तित्व के आगे

सब को बौना,

दिखा रहे थे……..


यदा कदा 

दीवारों का रंग रोगन

भी छूट चुका था….

और स्लेटी रंग

भी कहीं कहीं,

फूट चुका था……..


मेरे कवि मन ने एक

खाका खींचा

ह्रदय के कोमल भावों से

मैंने उसे सींचा……..


खंडहर एक ख़ूबसूरत 

संसार था,

प्यार से सराबोर

घर बाहर था…….


डाली डाली डोलती थी

तितलियाँ,

बहारों से गुलशन

बरकरार था……….


सुबह, शाम फिर रात ने

कंबल ओढ़ा,

बहारों ने भी गुलशन से

नाता तोड़ा ………..


आज इसे हो जाना है

अस्तित्वहीन,

प्राण विहीन…….

फिर से होगा

सीमेंट और गारे का

जुगाड़ 

और खुल जाएँगे बंद 

किवाड़ …………


फिर से मुस्कराहटें 

आएँगी,

रंगीन तराने

गाएँगी………..


ज़िंदगी का यही है ताना बाना

बनना टूटना और फिर जुड़ जाना।

“पुनरपि जननं ,पुनरपि मरणं”

शायद यही है नियति

और

पुनरावृत्ति॥


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