मरने की चाह
मरने की चाह
कभी-कभी जिन्दगी से तंग होकर, सोचा जीना छोड़ दू
रह-रहकर घुटन से अच्छा, सांस लेना छोड़ दू कलमें उठी,
दो शब्द लटके पेज , घर में छोड़ने को तभी याद उन शब्दों की आई,
जो पन्नों पर सोना चाहते थे मेरी बदनामी का दाग ओढ़ना चाहते थे
वो कायर शब्द हमें चिढाने लगे, मरने की व ह पुछकर डराने लगे प्रश्न कुछ यूं था,
हम ग्लानि में सर झुकाने लगे वे हँस-हँस मेरे दुख दूर भगाने लगे
माता कह जिसे जग पुकारे, तुझे उनसे क्या कहना है क्या तुझे उनके साथ अब ना रहना है
हर जग से लड़ रहे, उस पिता से क्या कहना है क्या उनके लिए तुझे अब ना जलना है
शोर-शपाटे की चाह रखने वाली, उस दीदी से क्या कहना है क्या उनके नखरे तुझे अब ना सहना है
जो पल - पल दे सहारा, उस भाई से क्या कहना है क्या उनके साथ तुझे अब ना रहना है
फिर ना चली मेरी मनमानी, अब सुनो कलमों की वाणी हर पल में हूं यार तेरा मैं,
तेरे भविष्य का उजियारा लगा मुझे तू हाथ तो, दूर भागेगा अंधियारा