धर्म-बीज़
धर्म-बीज़
निजी बैर की आड़ में किसने, बीज धर्म का बो दिया
मंदिर-मस्जिद के द्वंद्व में देखो, हमने खुद को बदल लिया
जो हम दोनों की यारी थी, ना उसमें दुनियादारी थी
धर्म के ठेकेदारों से अपनी, ना कोई रिश्तेदारी थी
एक गली में हम थे पले बढ़े, वर्षों तक जहाँ थे संग पढ़े
पाठ एक था दोनों का फिर, क्यों अलग अलग हम हुए खड़े
किताबों ने कभी ना हमको, पाठ द्वेष का सिखलाया
मानव-मानव एक जैसा है, यही था हमको बतलाया
लेकिन धर्म के अंधों को, ये बात कभी भी समझ ना आई
अपनी झूठी ज़िद के कारण, करे लड़ाई दोनों भाई
बचपन जो दोनों का बीत गया, छुटपन का मन मीत गया
साथ जिसके रोटी खाई थी, वो संगी साथी छूट गया
खीर जो घर में बनती थी, उसके हिस्से की छनती थी
सेवई में तब तक स्वाद ना होती, जो उसके घर ना पकती थी
कैसे हम वो दिन भूल गए, जब साथ में दोनों स्कूल गए
दो रोटी जो दी थी माँ ने, संग खाये खुशी से फूल गए
वो पहले के दिन अच्छे थे, हम बच्चे थे पर सच्चे थे
चाहे समझ ना थी धर्म की, पर इंसानियत में पक्के थे
अब छू जाने से पछताते है, हाथ धोते और नहाते है
बैठ के संग में खाना क्या, हम मिलने से कतराते है
अब मुद्दा ढूंढा करते है, हम घंटी और अज़ान में
जान दोनों की फंस कर रह गयी, बकरे-गाय की शान में
हम जिस समाज में पलते है, उसी की राह पर चलते है
देखकर अपने गुरु जनों को, उनकी सोच में ढलते है
लेकिन हम अब भी जलते है, बस तपी सड़क पर चलते है
वर्षों पहले जो भेष दिया, हम उसे पहन कर निकलते है
वो दो चार ही होते है, जो औरों को दुःख देते है
लेकिन उनकी अंधी चक्की में, कौम पिसते रहते है
सब आए आकार गुज़र गए, पन्नों पर देखो बिखर गए
कुछ बोला कुछ उपदेश दिया, और बीज द्वेष का डाल गए
क्या है उसका हश्र देखो, कैसे बदली ये नसल देखो
पर उनको फर्क पड़ता है क्या? जो फसल जहर का डाल गए
जो बोलेगा पीट जाएगा, मुंह खोलेगा मिट जाएगा
ये सबकुछ जैसा चलता है, वैसा ही चलता जाएगा
है मालूम ना कुछ भी बदलेगा, ये सोच हमें बस ग़म देगा
ये रोग द्वेष का मिट जाए, कब कोई ऐसी दवा देगा