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paramjit kaur

Abstract

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paramjit kaur

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सुबह मुस्कुराहट भरी होगी...!

सुबह मुस्कुराहट भरी होगी...!

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इस रात की सुबह जल्द ही मुस्कुराहट भरी होगी !

आज फिर उम्मीद को ओढ़े, सुबह बालकनी में बैठ गई

पिछले कुछ दिनों की तरह, आज भी तो थी

हर तरफ़ वही ख़ामोशी !

बचपन भी तो सहम गया था


इक्का- दुक्का लोग ही बाहर थे, टहलते हुए,

रुक- रुक कर आती पक्षियों की चहचहाहट 

प्रदूषण रहित, साफ़ हवा 

मगर मीठी- सी हलचल के बिना

तभी देखा

एक गौरेयादूर बैठी


मेरी तरफ़ ही देख रही थी

जैसे पूछ रही हो हर तरफ़ छाई इस

ख़ामोशी का कारण !

सामने बन रही इमारतें क्यों खामोश हैं ?

मज़दूरों की वह चहल- पहल

कहाँ हैं ?


सुबह से शाम तक

आती प्रगति की वे आवाज़ें !

जिनमें पक्षियों की ध्वनि भी गुम हो जाती थी, 

शहर के इस वातावरण में रहने की

उन्हें भी तो आदत हो गई थी । 

आज इस ख़ामोशी से वे भी तो बेचैन हैं ! 


एकाएक, वह मेरे बहुत करीब आ गई,

चहचहाई!  

जैसे कह रही थी 

चिंता मत करो 

फिर से, वही चहल- पहल व खिलखिलाहट होगी !

मैं भी मुस्कुराई

हाँ जब तक प्रकृति, जीव और मनुष्य एक हैं


मानवता मिट नहीं सकती

इस रात की सुबह जल्द ही मुस्कुराहट भरी होगी।


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