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Archana Saxena

Romance

4.5  

Archana Saxena

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सतरंगी पल तुम्हें पुकारें

सतरंगी पल तुम्हें पुकारें

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आज न खोलूँ अँँखियाँ अपनी बह न जाएँ कहीं वह छिन पल

पलकों के भीतर जो बसे हैं मेरे वह सतरंगी पल


सावन की रिमझिम फिर आई दिल ने तुम्हें पुकारा फिर

मुझसे न बोलो ना ही सही प्रीत की रीत निभा लो पर


इक बदरी अंबर पर छाई दूजी मेरे मन घिर आई

घन तो गरज बरस चुप जाएँ मेरे हिया की पीर न जाई


झूले फिर पड़ गए बाग में सजनी साजन डोल रहे हैं

यादों के पट बन्द किए जो अंजाने ही खोल रहे हैं


लगा मुझे मैं हूँ झूले पर मुझे झुलाए साजन मेरा

बालों की लट मुख से हटा कर देख रहा वह मेरा चेहरा


झोंका एक हवा का फिर से आकर गालों से टकराया

पलकें न खोलीं मैंने अपनी शायद साजन ने सहलाया


झम झम झम झम पड़ी फुहारें और बढ़ातीं आकुलता को

तन मेरा भीगे फिर भी मैं प्यासी समझे कौन इस व्याकुलता को


जब भी रूठ जाती मैं तुमसे तुमने मनाया था हर बार

पल भर में मैं मान भी जाती गहरा होता जाता प्यार


तुम जो रूठे जग भी रूठा कोई न समझे ये लाचारी

हमदम मेरे मान भी जाओ तुम्हें मनाते मैं ही हारी


काश के गर ऐसा हो जाता पा जाती फिर से वो पल

खोलती नैनन के पट जैसे सामने हों सतरंगी पल


सतरंगी पल तुम्हें पुकारें नैना भी तेरी राह निहारें

गुजर न जाए सावन प्यासा साजन मेरे अब तो आ रे!


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