स्त्री और श्रृंगार
स्त्री और श्रृंगार
जैसे गुलाब के फूल संग मोतियों का हार
पर,
क्या मोतियों के हार बिना गुलाब का अस्तित्व नहीं?
क्या इससे गुलाब की सुंदरता कम हो जाएगी कहीं?
नहीं,
गुलाब की सुंदरता हार की मोहताज नहीं
गुलाब की महक पर किसी का राज नहीं
गुलाब तो रहकर काँटों संग भी खिलता है
यही तो उसकी सबसे सर्वश्रेष्ठ भिन्नता है
फिर,
क्यों श्रृंगार जरूरी है एक स्त्री के लिए?
क्यों उसे ही आभूषणों की दरकार है?
बिंदी, चूड़ी, बिछिया, पायल क्या बस इन्हीं से स्त्री की पहचान है?
क्या श्रृंगार बिना स्त्री का कोई अस्तित्व नहीं?
क्या श्रृंगार बिना स्त्री लगती सुंदर नहीं?
श्रृंगार तो बस एक आभूषण समान है।
श्रृंगार नहीं कोई सुंदरता की पहचान है।
वह असल श्रृंगार नहीं जिसमें प्रवलता की हो भावना।
श्रृंगार तो वह सच्चा है जिससे पूर्ण हो हर कामना।
असली श्रृंगार स्त्री का खुशनुमा सा चेहरा है,
संतोषी स्त्री का स्वयं का तेज ही बहुत गहरा है।
सादगी से बड़ा स्त्री के लिए कोई श्रृंगार नहीं,
क्योंकि श्रृंगार किसी उपमा का मोहताज नहीं।