सरलता से ही
सरलता से ही
सरलता से ही बन जाते हैं,
वो निराले काम कहलाते हैं,
बुरे कर्म इंसान के हो अगर,
जन जन को खूब हँसाते हैं।
कभी कभी काम पूरा करवाने,
निज समस्त जोर लगा देते हैं,
हाथ फिर भी खाली मिलते हैं,
हम शर्म केे मारे मुंह छुपाते हैं।
धन दौलत भी धरी रह जाती,
फिर भी काम नहीं बन पाते हैं,
कभी कभी हल्की से दौड़ से,
झटपट ही काम बन जाते हैं।
गंगा को धरती पर लाये उन्हें,
जगत जमकर दुख उठाये हैं,
सगर,अंशुमान चले गये जब,
भागीरथ ही लाज बचाते हैं।
देवों को प्रसन्न करने खातिर,
जप तप में बीते दिन व रात,
खाना पीना तक भूल गये वो,
बने थे बहुत बुरे तब हालात।
कभी कभी ऐसा लगता जन,
काम हो जाते पूरे आसानी से,
सत्यमार्ग पर चलते ही जाना,
क्या रखा है यहां नादानी में।
सांझ ढले होती है तब रात,
कभी बिगड़ जाती जन बात,
छोड़ जाते पल में सारे निज
जो चलते जा रहे साथ साथ।
साधु संत कह रहे जहां में सुन,
एक दिन सबको जाना ही होता,
सरलता से काम कर ले अपने,
क्यों अधिक धन खर्च कर रोता।।
