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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Fantasy

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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract Fantasy

सृजिता

सृजिता

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कई दफा टूटकर बिखरी थी मैं 

हर दफा और भी निखरी थी मैं 


मेरे अंदर कुछ खाक हुआ था इक दिन  

मेरे अंदर कुछ राख हुआ था इक दिन 


मैंने देखा उठता धुआँ सा कुछ

मैंने देखा बनता धुएं से कुछ


थोड़ी जानी थोड़ी पहचानी थी वो

मैं रही भोली मगर सयानी थी वो 


मेरे अंदर से जन्मी कोई कविता थी वो 

ध्यान से देखा तो जाना " सृजिता" थी वो

    


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