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सर्दी की सिकुड़न

सर्दी की सिकुड़न

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जाने क्यों रजाई मैं सिकुड़ने को ही जी चाहता है

सुबह चाहे बजता रहे घड़ी का अलार्म

भला किसको सुनने का जी चाहता है

अपना तो बस रजाई में ही सिकुड़ने को जी चाहता है।


माँ या पत्नी कितना भी चिल्लाए ,

पर न जाने क्यों आवाज़ रजाई में ही कही गुम हो जाती है

अब तो चाय की चुस्की भी इतना आनंद कहाँ दे पाती है

छुट्टी के दिन जो ये नींद कर जाती है।


रजाई की सिकुड़न कुछ अलग ही मज़ा दे जाती है

जानते हैं ग्रीष्म ऋतु की बातें ...

खिल जाते हैं फूल और कलियाँ

जैसे सुंदरता और सुगंध से सारा वातावरण भर जाता है।


कोयल और पपीहे की पीहू से जैसे हृदय गीत गाता है

पर फिर भी न जाने क्यों आलस ये जीत जाता है

अपना तो बस रजाई में ही सिकुड़ने का जी चाहता है।


कभी झरनों का शोर तो कभी

कलकल बहती हुई नदी का गीत याद आता है

नदी की डुबकी का मज़ा तो कभी अठखेलियाँ याद आती हैं।


पर अभी तो ठंडे पानी के छींटे जैसे शोलों से लगते है,

सुबह ठंडे पानी से नहाने की बातें आत्महत्या जैसी लगती है

और तिथि पे नदी नहाने की बात जैसे

अबला को डाकू के गिरोह के सामने छोड़ देना लगता है।


अपना तो बस रजाई में ही सिकुड़ने का जी चाहता है

कोहरे से जब घनघोर घटाये धरती पे अंगड़ाइयाँ लेने लगती है,

कम्बख्त फिर भला किसकी मौत आयी है

जो बाहर निकलना चाहता है।


जब दिन भर बादलों की घटा हो,

न सूरज न धूप का कहीं पता हो

फिर हीटर या अलाव ही करते जैसे सीमा की रक्षा है

हाँथ सेंक के मूंगफली खाना जैसे दावत खाना लगता है।


गर्म गर्म चाय जैसे अमृतपान सा लगता है

फिर तो बस रजाई में ही अंगड़ाइयाँ लेने को जी चाहता है

अपना तो बस रजाई में ही सिकुड़ने का जी चाहता है।


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