सोचा था
सोचा था
1 min
264
सोचा था
सामाजिकता के मुस्तकबिल
से खुद को निकाल पायेंगे
बिन मर्जी का
गठबंधन कर
दो छोटी बेहनों का फर्ज
और मां-बाप का
कर्ज उतार जायेंगे।
पर किस्मत को
ये गवांरा न हुआ
मेरे दामन में
दाग का किस्सा
प्रतिष्ठित समाज को
पुराना न हुआ
जब चाहा उतारी हमारी अस्मत
कोई भी हमारा सहारा न हुआ।
कहते हैं
अदृश्य शक्ति की ताकत
जब रहमों, कर्म करती है
अच्छी से अच्छी समस्या
फूल बन कीचड़ में खिलती है
उसका साथ ही
आज मेरी पहचान बनी
अब चिंता न रही चाहे जाऊँ जिस गली।