सन्तुलन
सन्तुलन
अतिवृष्टि हो रही अति प्रलयकारी !
मेघ की गर्जन है भंयकर- विनाशकारी !
धूल मिट्टी से सना है आज निर्मल नील गगन !
लग रहा है आज मानो काल की आ रही सवारी !
प्रकृति के विध्वंस बाणों से काँपती पृथ्वी बेचारी !
भयभीत वृद्ध.. डरते हैं बच्चे ...डर रहे है नर- नारी ।
क्या इस अतिवृष्टि से धरा जल में समा जाएगी ।
या कोई चमत्कार होगा ....
..या मृत्यु अपना बिगुल बजाएगी....
नभ में क्षण क्षण विद्युत रेखा भी दमक रही हैं !
रह रह के कई बार पर्वत शिखरों पर ..
तो कई बार घरों पर गिर रही हैं ..
है प्रकृति का रौद्र रूप ये !
मानो शिव ही साक्षात रूप में ..
तांडव नृत्य से सृष्टि का कर रहे संहार !
निस्सहाय मानव प्रायश्चित में क्षमा याचना ..
माँगता है ..
हे परम शक्ति सुनो ..इस बार ..
बख्श दो धरा को ..और यहाँ के वासियों को ,
न बांटो मृत्यु का अभिशाप ..
न देखो जो किए हैं मानव ने पाप !
विज्ञान के यान में जो बैठकर ,
प्रकृति पर ढाए है उसने प्रदूषण सम ताप!
अब न करेगा भविष्य में वह ऐसी कड़ी भूल
तब आकाशवाणी हुई कि हे मानव त्याग दे तू ,
अपने भीतर समाहित अहंकार....
मानो प्रकृति ने मानव को आख़िरी भविष्यवाणी सी दी!
कि अब भी न निद्रा से न जगेगा तो साक्षात ..
प्रलय को तू अपने पास ही पाएगा !
तभी एक प्रकाश सा चहूँ ओर दीप्त हो गया ..
देखते ही देखते ..दृश्य मानो बदल गए ..
अब न मेघ थे ..न वृष्टि ही थी ..
न कोई प्रलयकारी टंकार ही थी !
अब सूर्य अपने तेज़ रश्मियों से नभ को
चमका रहा था !
मानो सूर्य धरावसियों को जीवन के महत्व का..
पाठ पढ़ा रहा था ..
कि इक दिन न होत ,एक समान !
कभी निराशा के बादल हैं जीवन में ,
तो कभी आशा की किरनें है जीवन में ,
सुख और दुख के पहिए से ही चलता है जीवन !
एक के बिना न दूजा भाए ,
मानो जीवन ....
इन दोनों भावों के संतुलन को सिखाए !