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Sukanta Nayak

Abstract

5.0  

Sukanta Nayak

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समय

समय

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भगवान की लीला भी अपरंपार है

समय से बंधा हर एक इंसान 

समय से ना होता पार है।


सुई चुभ जाति है अंधेरा छायी रहती है

बुढ़ापे का साहारा जब आस छोड़ जाति है।


ये समय की चक्र है 

या सागर की गर्भ

जो फेंकी थी दूसरों पर जीवन भर 

वही लौटकर वापस आती है।


आज भि वो दिन याद आये

बच्चों में खुद को बच्चा पाऊं

आंखे मूंद लूँ के कोई देख ना ले

फिर भी आँसू रोक ना पाऊं।


थे वो दिन, 

गुरूर था कितना 

नाज़ था खुद

पे

जवानी थी दम खम था 

कुछ कर गुजरने का जज्बा था खुद पे।


धीरे धीरे दिन ढलने लगा

बाजुओं में ताकत कमने लगा

दौड़ दौड़ कर अब कहीं 

जीनेकी असल उम्मीद जगने लगी।


समय गुजरता रहा 

खुद को खुद से दूर होता रहा

उसि दूरि में एक लौ जल गई

खुद को खुद से मिलने की वजह मिल गई।


अब सत्य ही समय है

समय ही सत्य है

साक्षि बनकर रह जाऊं 

सूखे पत्ते कि तरह नदी में बह जाऊं

अंतिम पड़ाव है... 

तेरी शरण में लीन हो जाऊं।


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