""स्मृतियों की परछाइयाँ"" एक स्त्री की मौन प्रेम-यात्रा"
""स्मृतियों की परछाइयाँ"" एक स्त्री की मौन प्रेम-यात्रा"
कुछ मौन भी बोल जाते हैं,
जो लफ़्ज़ कह न सके, वो आँखें कह जाती हैं।
कभी कोई आहट बन कर आता है कोई,
और फिर ख़ामोशी में उम्र बिता जाती है…
वो सुबह कुछ अलग थी।
घर में वही चाय की ख़ुशबू थी, वही बहन की किताबें बिखरी थीं, माँ की धीमी साँसें उसी तरह कमरे में बहती थीं… फिर भी सब कुछ अजनबी लग रहा था।
वो लड़का अब नहीं आता था।
रसोई से बरामदे तक, हर कोना उसकी मौजूदगी की आदत बन चुका था।
पहले दिन लगा — शायद कहीं व्यस्त होगा।
दूसरे दिन — शायद किसी रिश्तेदार के यहाँ।
तीसरे दिन माँ की आवाज़ आई —
"उसे दिल्ली में नौकरी मिल गई है, बेटा। ऑडिटर बना है। सेंट्रल गवर्नमेंट की पोस्ट है। मेहनती था — मेहनत रंग लाई।"
दिल्ली — जहाँ लोग मिलते हैं, और खो जाते हैं।
मैंने कुछ नहीं कहा।
पर भीतर कुछ चटक गया था।
एक नमी सी थी — जो गहराई तक सब गीला कर गई।
अब खिड़की पर बैठना अच्छा नहीं लगता था।
रिक्शे की टिन-टिन आवाज़ अब दिल को नहीं भाती थी।
बच्चों की हँसी चुभने लगी थी।
कुछ लोग कितनी जल्दी ज़िंदगी की आदत बन जाते हैं।
और जब वे चले जाते हैं —
तो हर चीज़ जैसे एक खाली आईने जैसी हो जाती है,
जिसमें हम खुद को पहचान नहीं पाते।
अब मैं उसी कोने में बैठती थी —
जहाँ से वो कभी दिखता था।
अब वहाँ धूल उड़ती है, और मैं —
उस ख़ामोशी में खुद को ढूँढ़ती थी।
आईना सवाल नहीं करता,
पर उसकी खामोशी बहुत कुछ कह जाती है।
जब हम खुद को देखने से डरते हैं,
तो असल में हम खुद से छुप रहे होते हैं।
कभी-कभी आईना भी सवाल करने लगता है —
बिना लफ़्ज़ों के।
वो सवाल जो दिल को बींध देते हैं।
उस दिन मैं फिर उसी आईने के सामने खड़ी थी —
जिसने कभी मेरे फूलों वाले बालों को निहारा था।
अब वो मेरे चेहरे पर थकान, अधूरापन और गुमशुदा सपनों की परछाइयाँ दिखा रहा था।
आईना पूछता था —
"कौन हो तुम?"
और मैं… जवाब देने से कतराती थी।
अब चेहरा देखना भी बोझ लगने लगा था।
माँ के सवालों से नज़रें चुराने लगी थी —
"अब तो उम्र हो रही है बेटा, रिश्ते की बात सोचो…"
क्या कहती उन्हें कि
एक रिश्ता जो कभी बना ही नहीं,
उसने मेरे अंदर सब कुछ बसा लिया है।
रातों की नींदें, ख्वाबों की परछाइयाँ,
सब कुछ बदल चुका था।
अब मैं वैसी नहीं रही थी —
जो कभी आईने में खुद को देखकर मुस्कराती थी।
लेकिन एक रात…
जब चाँदनी चुपचाप खिड़की से झाँक रही थी,
मैंने आईने से फिर पूछा —
"क्या मैं अब भी वही हूँ?"
आईना चुप था,
पर उस चुप्पी में एक सच्चाई थी —
मैं बदल चुकी थी।
और शायद अब वक्त था —
खुद को फिर से जानने का।
आईने से दोस्ती करने का।
अपने अधूरेपन को गले लगाने का।
कभी कोई इतना पास होता है,
कि उसकी दूरी भी सांसों को रोक देती है।
और जब वो चला जाता है,
तो उसके साये में ज़िंदगी ठहर जाती है…
उस शाम की हवा में कोई ख़ामोश सिसकी थी।
भीगी मिट्टी, अधूरी बारिश और स्मृतियों की महक।
वो मुझसे दूर गया नहीं था —
पर उसकी आत्मा मेरी साँसों में अटक गई थी।
दिल के किसी कोने में वो अब भी मौजूद था,
बिना कहे, बिना स्पर्श के।
माँ ने एक बार कहा था —
"भूल जा उसे…"
मैंने सिर हिलाया,
पर क्या कोई साँसें छोड़ सकता है?
हर सुबह मैं खिड़की से देखती —
उसी रास्ते पर, जहाँ उसकी परछाईं चलती थी।
एक दिन खबर मिली —
वो अब कहीं और बस गया है…
नई नौकरी, नया शहर… शायद कोई नई ज़िंदगी।
मैं वहीं थी —
जहाँ उसने अलविदा कहे बिना विदा ले ली थी।
मैंने बस एक वाक्य अपनी डायरी में लिखा —
"आज वो चला गया। मैं भी।"
लेकिन सच्चाई ये थी —
वो चला गया, पर मैं आज भी उसी साँस में अटकी हुई हूँ।
कुछ लफ़्ज़ होते हैं, जो कभी कहे नहीं जाते,
कुछ ख़त होते हैं, जो कभी भेजे नहीं जाते।
पर वे दिल में धड़कते रहते हैं,
हर धड़कन में… हर तन्हाई में…"
उस रात नींद किसी और की बाहों में थी।
मैं जाग रही थी —
तकिए के नीचे वही नीला लिफ़ाफ़ा दबाए,
जिसमें एक ख़त था…
जो कभी डाक तक नहीं पहुँच सका।
"प्रिय,
(तुम्हारा नाम नहीं लिख सकी — डरती थी कि तुम हकीकत बन जाओगे)"
तुम्हारे जाने के बाद सबसे मुश्किल वो सुबहें थीं —
जब सबके सामने मुस्कराना पड़ता था,
जब दिल के टूटे हिस्सों को समेटकर
'मैं ठीक हूँ' कहना पड़ता था।
मैंने कई बार सोचा कि तुम्हें ये ख़त भेजूं,
पर हर बार डर गई —
कहीं तुम पढ़ लो, और फिर कुछ भी ना कहो।
तुम्हारी हर बात अब भी मेरे चारों ओर गूंजती है —
तुम्हारी हँसी, तुम्हारी नजरें,
तुम्हारी खामोशी…
मैं जानती हूँ —
हमारे बीच समय था, समाज था, परिस्थितियाँ थीं —
लेकिन मेरा प्रेम सिर्फ़ मेरा था।
अब ये ख़त भी अधूरा रह जाएगा —
जैसे तुम रह गए थे।
शायद एक दिन
जब दिल बहुत भारी होगा,
तो इसे जला दूँगी…
या फिर
इसी के साथ जी लूँगी —
एक ख़त जो कभी भेजा नहीं।
कभी-कभी आँखें भी बोलती हैं,
उन लफ़्ज़ों से ज़्यादा,
जो ज़ुबां पर आ नहीं पाते।
कुछ प्रेम अधूरे ही सही,
पर वो हर दिन जी जाते हैं — चुपचाप…
वो समय…
जब मैं उसकी आहट पर चौक जाती थी,
उसकी खामोशी भी मेरे भीतर एक तूफ़ान जगा देती थी।
वो लड़का —
जिसकी आँखों में मैं खुद को पढ़ती थी,
पर हर बार वो नज़रें चुरा लेता था।
हमारे बीच कुछ नहीं था —
ना इकरार, ना वादा।
फिर भी —
जो था, वो सबसे सच्चा था।
कभी-कभी हम ऐसे एक-दूसरे को देखते थे —
जैसे पूरी ज़िंदगी उसी एक नज़र में ठहर गई हो।
पर कुछ कहा नहीं गया।
क्योंकि हम दोनों जानते थे —
हमारे हिस्से में साथ नहीं लिखा था।
अब बरसों बीत गए हैं।
पर उसकी आँखों का वो अधूरा सवाल
आज भी मेरी आत्मा में गूंजता है।
कभी-कभी अधूरे लम्हे
पूरी कहानी बन जाते हैं…
जो ना छुए गए, ना कहे गए —
बस महसूस किए गए।
कभी कोई चला जाता है
बिना अलविदा कहे —
और उसके बाद
हर आहट एक उम्मीद बन जाती है।
इंतज़ार तब भी होता है,
जब हमें यकीन हो चला हो —
अब कोई नहीं आएगा…
वो चला गया —
बिना कुछ कहे, बिना पलटे।
मैं वहीं रुकी रही —
उसी कोने में, जहाँ उसकी परछाईं बची थी।
समय बढ़ता गया,
पर मेरा मन उस एक पल में अटका रहा —
जहाँ बारिश थी, बिजली थी…
और हमारे बीच ख़ामोशी थी।
वो शायद आगे बढ़ चुका था —
नई ज़िंदगी, नई पहचान के साथ।
और मैं?
मैं उसी खिड़की के पीछे बैठी रही —
उसे एक बार फिर मुस्कराते देखने की उम्मीद में।
अब जब कभी दिल्ली की खबरों में
किसी सफल अफसर का नाम सुनती हूँ,
तो चुपचाप मुस्करा देती हूँ।
शायद वही होगा…
या शायद नहीं।
पर मेरे भीतर,
वो अब भी बारिश में खड़ा है —
भीगता हुआ, मुस्कराता हुआ।
"कुछ रिश्ते मुकम्मल नहीं होते —
पर अधूरे रहकर भी अमर हो जाते हैं।
वो लम्हे, जो कभी कहे नहीं गए,
आज रूह बनकर साथ जीते हैं..."
वो लड़का अब मेरी दुनिया में नहीं है।
न उसका कोई पता है, न उसकी कोई ख़बर।
पर वो मेरी रूह के सबसे कोमल हिस्से में
अब भी हर साँस के साथ बसता है।
ज़िंदगी ने बहुत कुछ सिखाया,
पर सबसे बड़ा सबक यही रहा —
हर प्रेम को पाना ज़रूरी नहीं होता,
कुछ प्रेम बस जीने के लिए होते हैं।
अब जब पीछे मुड़कर देखती हूँ,
तो सबसे सुंदर वही लम्हे लगते हैं —
जो दर्द में लिपटे हुए थे।
"स्मृतियों की परछाइयाँ"
उन अधूरे पलों का दस्तावेज़ है,
जो कभी ज़ुबां पर नहीं आए,
पर सबसे सच्चे, सबसे अपने थे।
यह कविता हर उस दिल के लिए है —
जिसने बिना कुछ कहे किसी को चाहा,
जो टूटा — फिर भी मुस्कराया,
और जिसने मौन को प्रेम की भाषा बना लिया।
"सबसे गहरी कहानियाँ अधूरी रह जाती हैं —
और शायद यही अधूरापन उन्हें अमर बना देता है।"
मैंने उस प्रेम को कभी पाया नहीं,
पर जिया —
हर ख़ामोशी में, हर धड़कन में।
अब जब कोई खामोश आँखें मुझे देखती हैं,
तो खुद को उनमें पा लेती हूँ।
क्योंकि...
कुछ लोग चले जाते हैं,
पर वो लम्हे —
वो लम्हे हमारी रूह में बस जाते हैं।

