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Kanchan Jharkhande

Abstract

5.0  

Kanchan Jharkhande

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समर्पण...

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1 min
250


जगमगाते झील मिल मैं

पाषाण के मौसम मैं

वर्षा की कल कल मैं

बाढ़ की हल चल मैं

जैसे दूब हो कोई


अर्द्धवस्था सी हरी मगर

ना पनप पाने की बन्दिश मैं

जगमग संसार से बोझिल

पाषाण मैं सुर्ख रेत हो कोई

वर्षा की कल कल भी हैं


पर छुपी पड़ी हैं किसी छाव मैं

छावं भी जैसे कोई खण्डर 

बाढ़ की दहसत भी हैं

पर किनारे से गुजरती हैं

मुझ तक न पहुँची


दूब हूँ मगर दबी दबी सी

ना परिपक्व हुई ना मृत

ना ही जीवन मैं कोई मोल

ना किसी के पावन कार्य की बेला हूँ

सिर्फ हरी हूँ प्रकृति कि

जैसे कोई रखवाली


संसार देता हैं मुझे सम्मान

पैरो तले कुचल कर

उखाड़ देते हैं मुझे जहाँ जरूरत नही

फिर भी उग जाती हूं हर कहीं


लड़खपन है थोड़ा सा मुझमें

स्थिरता नहीं है मुझमें

हूँ जैसे प्रकृति की कोई सौतेली औलाद

अनिवार्य हूँ पर स्वीकार नहीं

न अतीत है कोई मेरा बस 

पनप जाती हूँ सब जगह


दूब हूँ 

अर्धअवस्था मैं रह गयी

किसी खण्डर की चौक तले

पाषाण के महीने में

हाँ मैं दूब हूँ।


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