समर्पण...
समर्पण...
जगमगाते झील मिल मैं
पाषाण के मौसम मैं
वर्षा की कल कल मैं
बाढ़ की हल चल मैं
जैसे दूब हो कोई
अर्द्धवस्था सी हरी मगर
ना पनप पाने की बन्दिश मैं
जगमग संसार से बोझिल
पाषाण मैं सुर्ख रेत हो कोई
वर्षा की कल कल भी हैं
पर छुपी पड़ी हैं किसी छाव मैं
छावं भी जैसे कोई खण्डर
बाढ़ की दहसत भी हैं
पर किनारे से गुजरती हैं
मुझ तक न पहुँची
दूब हूँ मगर दबी दबी सी
ना परिपक्व हुई ना मृत
ना ही जीवन मैं कोई मोल
ना किसी के पावन कार्य की बेला हूँ
सिर्फ हरी हूँ प्रकृति कि
जैसे कोई रखवाली
संसार देता हैं मुझे सम्मान
पैरो तले कुचल कर
उखाड़ देते हैं मुझे जहाँ जरूरत नही
फिर भी उग जाती हूं हर कहीं
लड़खपन है थोड़ा सा मुझमें
स्थिरता नहीं है मुझमें
हूँ जैसे प्रकृति की कोई सौतेली औलाद
अनिवार्य हूँ पर स्वीकार नहीं
न अतीत है कोई मेरा बस
पनप जाती हूँ सब जगह
दूब हूँ
अर्धअवस्था मैं रह गयी
किसी खण्डर की चौक तले
पाषाण के महीने में
हाँ मैं दूब हूँ।