समर्पित शाम
समर्पित शाम
मूक मौन सी शाम ढ़लती
तरल मोती नयन भरे,
रात की ख़ातिर नतमस्तक सी
आहिस्ता सी समर्पित होती
बेसुध बनती शाम ढ़ले।
नीरव गगन से नूर समेटे
आफ़ताब भी चुपके से
दरिया की गोदी में छुपे,
आतुर रजनी उमड़ती उन्मादीत
उगने को बेकल सी बड़ी।
सिहर उठी तारों की सरगम
शाम की सहलाहट पे थिरकते
शिशिर की ठंड़ी बयार में जलते,
शाम तिमिर के सिरहाने पर
हौले से मुस्काती ढ़ले।
शाम के समर्पण पर झुकती
रात मतवाली आसमान के
आँगन पर तन फैलाती चले,
हंसते अधर पर चाँद का झूमर
दामन चाँदनी का चुमता चले।
मद्धम बहती शाम की बेला
रंग केसरिया चुनर से सजे,
शाम रात के नूतन मिलन पर
कायनात के कोमल तन का
हर एक ज़र्रा-ज़र्रा सजे।
