समाज और तराजू
समाज और तराजू
कितना आसान है किसी तलाकशुदा या फिर अधेड़ उम्र की कोई कुमारीका के लिए कुछ भी कह देना.....
उस तलाकशुदा, कुमारिका या विधवा के जरा सा मुस्कुराने पर भी यह समाज बेहिस हो जाता है....
वह उनकी हँसी पर ऐतराज करने लगता है ....
उनके लिबास पर रोकटोक करने लगता है .....
उनके सजने सँवरने पर रोकथाम लगा देता है......
उन्हें तरह तरह के बंधनों में बाँधने की कोशिश करने लगता है.....
उनकी जिंदगी हरतरह से दुश्वार करने में जुट जाता है.....
वह पूरी ताक़त झोंक देता है उनकी दुश्वारियों में इज़ाफ़ा करने में...….
उनकी दुश्वारियों का मज़ाक उड़ाने में फिर वह मगन हो जाता
है.....
समाज भूल जाता है की वह विधवा, तलाकशुदा या कुमारिका एक औरत है..
जिसमें नियति ने ही सर्वाइवल इंस्टिंक्ट दे दिए है.....
उन दुश्वारियों में भी वह मुस्कुराते रहती है.......
यह समाज फिर बेहिसी पर उतर आता है.....
वह उनकी कुछ सुनी अनसुनी बातों का ढिंढोरा पीटने लगता है.....
उसके न मानने पर उसकी हर हरक़त को वह अपने तराजू में तौलने लगता है....
समाज के इस तराजू के बाट गरीबों और अमीरों के लिए अलग अलग होते है.....
समाज का तराजू और तौलने की उसकी हरकत दोनों ही बेवज़ह होती है....
फिर भी वह सदियों से अपनी यह हरकतें बदस्तूर जारी रखे हुए हैं.......