सुरशक्ति गुप्ता
Tragedy
सिसकियां इतनी बढ़ गई हैं...
अब हिचकियां भी नहीं आती हैं...।।।
आत्मीय कंपन
प्यार
प्रेम संदेश
नवरात्रै
रंगोत्सव
श्रीराम
विश्व हिंदी द...
एकान्तता
सर्वश्रेष्ठ उ...
कभी आँधियों में कभी बरसात में चला कभी धूप में चला तो कभी मैं छाँव चला, कभी आँधियों में कभी बरसात में चला कभी धूप में चला तो कभी मैं छाँव चला,
मेरे बेमिसाल उलझनों की, ये मुकम्मल किताब। मेरे बेमिसाल उलझनों की, ये मुकम्मल किताब।
रोकना अगर इस हैवानियत को है तो रोकना अगर इस हैवानियत को है तो
पति को दोस्त बनाये तो वो चिल्ला पड़ते हैं ऑफ़िस की थकावट का बहाना लगा पति को दोस्त बनाये तो वो चिल्ला पड़ते हैं ऑफ़िस की थकावट का बहाना लगा
कथा जब इन गरीबों की, लिखी है आंसुओं से ही। कथा जब इन गरीबों की, लिखी है आंसुओं से ही।
घर की शिकंजी के जग छोड़ कर , ये जो पेप्सी कोका पे टिके हो घर की शिकंजी के जग छोड़ कर , ये जो पेप्सी कोका पे टिके हो
आइये खाना ले जाइए और रमिया बच्चों को ले आवाज की दिशा में दौड़ पड़ी। आइये खाना ले जाइए और रमिया बच्चों को ले आवाज की दिशा में दौड़ पड़ी।
अच्छा नहीं लगता अब ऐसे बनाबटी अच्छा नहीं लगता अब ऐसे बनाबटी
कहीं कातिल है संप्रभु समाज, कहीं कातिल है रीति रिवाज़ कहीं कातिल है संप्रभु समाज, कहीं कातिल है रीति रिवाज़
मानव समाज हुआ सभ्य, शिक्षित, किया नित नया आविष्कार, करके जल स्रोत का उपयोग, मान मानव समाज हुआ सभ्य, शिक्षित, किया नित नया आविष्कार, करके जल स्रोत का उप...
लालच के जाल में हैं फँसा लालच के जाल में हैं फँसा
चीर हरण क्या करे दुहशासन हरने को ही चीर नहीं है आँखें बंद क्यों करें पितामह आँखों में चीर हरण क्या करे दुहशासन हरने को ही चीर नहीं है आँखें बंद क्यों करें पितामह आ...
पर है कहाँ ठीक आजकल, मनुज की प्रवृत्ति, दिनों दिन देखो जाए हैं, उसकी चाह बढ़ती। पर है कहाँ ठीक आजकल, मनुज की प्रवृत्ति, दिनों दिन देखो जाए हैं, उसकी चाह बढ़ती...
उस चिराग से अँधेरा तो हार गया पर मैं अब नहीं कहीं. उस चिराग से अँधेरा तो हार गया पर मैं अब नहीं कहीं.
दोनों ही कुड़ेदानी हैं पृथ्वी कचरे की और शरीर संदूषित विचारों की। दोनों ही कुड़ेदानी हैं पृथ्वी कचरे की और शरीर संदूषित विचारों की।
जिस मजबूरी से हमने खुद को घर मे कैद कर लिया , उसी मजबूरी ने उसे चलने पर मजबूर कर दिया, जिस मजबूरी से हमने खुद को घर मे कैद कर लिया , उसी मजबूरी ने उसे चलने पर मजबूर...
गाँव भी न छोड़ा,नगर भी न छोड़ा मन मर्ज़ी अपनी,जिधर चाहा दौड़ा. गाँव भी न छोड़ा,नगर भी न छोड़ा मन मर्ज़ी अपनी,जिधर चाहा दौड़ा.
शायद प्रकोप ही है यह प्रकृति का। शायद प्रकोप ही है यह प्रकृति का।
मूल्य की सीमा यहां चमड़ी के रंग से घटती बढ़ती और बढ़ती जाती है मूल्य की सीमा यहां चमड़ी के रंग से घटती बढ़ती और बढ़ती जाती है
मैं ढूंढना चाहती हूँ उन बच्चों को जो कंचे खेलते थे पिता, ताऊ, काका को देखकर छिप जात मैं ढूंढना चाहती हूँ उन बच्चों को जो कंचे खेलते थे पिता, ताऊ, काका क...