सिकंदर के तीन मंतर!
सिकंदर के तीन मंतर!
पुरानी कहावत है कहती, यह है गांधीजी के तीन बंदर ।
शांति उनके जीवन में आती, जो बनाले इनको जिंदगी का मंतर।।
बुरा ना देखो, बुरा ना सुनो, बुरा ना कहो।
जहां बुरा हो रहा हो, वहां से दूर ही रहो।।
कोई अगर बुरा करें तो, ना दूसरों को सहने दो ना खुद बुरा सहो।
कोई अगर बुरा रहें तो, आप उसके साथ भी अच्छे से रहो।।
ऐसा कहने और करने में, होता है बहुत अंतर।
बचना इतना आसान नहीं, दुनिया हैं बुराइयों को समंदर।।
दुनिया तो है बाद में, होती है बुराइयां खुद के भी अंदर।
जिसने काबू पा लिया इनपर, वह होते हैं असली सिकंदर।।
समस्या है यह कि, मैं बहुत दूर हूं बनने को सिकंदर।
सब्र मेरा टूट जाता है कभी, बुरा सहते सहते निरंतर।।
बुरा करने वालों के लिए, कभी कभी मुझसे भी बुरा निकल जाता हैं।
बुराइयों को उनकी, मन चाहकर भी नहीं भूल पाता हैं।।
बुरा कोई ओर करें तो, उसपर वैसे भी हमारा जो़र नहीं।
बुरा तो तब लगता हैं, जब बुरा करने वाला अपना हो, कोई ओर नहीं।।
उनका मिज़ाज ऐसा है कि उनके साथ कोई गलत करें, यह कतई पसंद नहीं।
वही बात वह दूसरों के साथ करो,तो उसमें उन्हें कोई अचरज नहीं।।
विडंबना है एसी कि, बुरा करने वालों अपनों को कोई कुछ नहीं कहता, सब अच्छों को ही समझाते हैं।
तुम तो बात को समझो, बुरे कहां कुछ समझ पाते हैं।।
उनकी यह समझाइश, जगा देती हैं फिर से अच्छाई को जो है मेरे अंदर
बुरा ना देखो, बुरा ना सुनो, बुरा ना कहो, मैं फिर दोहरा लेती हूं यह तीन मंतर।